ख्वाब ही ख्वाब में

चाँद मेरी तरह पिघलता रहा
नींद में सारी रात चलता रहा....!
जाने किस दूख से गिरफता था
मुहं पे बादल की राख मलता रहा....!
मैं तो पाँव के कांटे चुनती रही
और वो रास्ता बदलता रहा....!
रात गलियों में जब भटकती थी
कोई तो था जो साथ चलता रहा....!
सर्द रुत में मुसाफिरों के लिए
पय्र्र, बन कर अलाव जलता रहा....!
मौसमी बेल थी मैं सूख गई
वो तनावर दरख्त पलता रहा....!
दिल, मेरे तन का फूल सा बचा
पत्थरों के नगर में पलता रहा....!
नींद ही नींद में खिलोने लिए
ख्वाब ही ख्वाब में बहलता रहा
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